मैं नहीं जानता जीवन की, एकल अधीरता कैसी है, नहीं जानता स्त्री–पुरुष में, यह स्थिरता कैसी है। मैंने संग तेरे चलकर, मन के वह द्वंद नही देखे, न रोया रातों में तुझ संग, विरह पृष्ठ नहीं खोले। न समझ सका वह अंतर–युद्ध, न जीवन की वह चंचलता एक अधूरी कड़ी बना मैं, पूर्ण मिलन की उत्सुकता! मैंने पल–पल कुछ भाव दिए, मन में मन के ठहराव लिए विकल हुए इस जीवन को, फिर समय समय प्रवाह दिए। किंतु विरह की ज्वाला जो, इस करुण हृदय में हुई प्रखर मैं घुट–घुट कर चुप रहता हूं, एक शिला सा मौन मुखर नहीं जानता सही गलत को, भाव पूजता रहा सदा। मधुर मिलन था संग जो बीता, तेरी मेरी प्रेम व्यथा। ज्यों गुंजन करते भ्रमर, फूलों से मधुरस भरने को चंचल चितवन की वह भाषा, विकल मेरा चित हरने को नहीं चाहिए स्त्रीत्व तुम्हारा, ना देह-रूप का अभिलाषी साथ रहूं कुछ साथ चलूं, है सफर मेरा मैं प्रवासी किन्तु आज हृदय में यह, कैसा कोलाहल होता स्मृतियों के उन्मादों में क्यों सावन उमड़–उमड़ रोता जब जब सहलाए वो कपोल, कुछ अनकही बातें कहती थीं। वे पल जो बीते थे संग में, अपनी जीवन धारा बहती थीं। किन्तु टीस बनीं वह यादें, इस करुण हृदय को छल...
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