यह जो सामने लगा है दर्पण, एक अदृश्य द्वार खोले।
प्रतिबिंब आपका ही दिखलाता, किन्तु छवि मन में बोले।।
क्या सचमुच वहाँ कोई रहता है, मेरी सूरत को धारे,
या अक्स मेरा कुछ उसमें बाकी, जो चुपचाप मुझे ताके।।
काँच की इस दीवार परे जो, अजब कहानी रहती है,
क्या सच है क्या भ्रमजाल है, भेद न कोई कहती है।
क्या वहाँ भी सूरज उगता होगा, रातें भी आती होंगी?
या बस मेरी कल्पनाएँ, उस पार कहीं गाती होंगी।
क्या वहां भी बारिश गिरती होगी, कागज की कश्ती सजती होंगी
या बस मेरे मन की पतंगे, मुक्त गगन में तरती होंगी।
क्या वहां भाव भी बहते होंगे, ख्वाबों की बारातें होंगी?
या रो–रो कर पगली कोयल, थकित कहीं सो जाती होंगी।
क्या वहाँ साँझ भी ढलती होगी, पत्तों पर धूप मचलती होगी?
फिर आकर कुछ यादें चुपके, नीरस नयनों से झरती होंगी।
क्या वहां भी सपने बिखरते होंगे, रातों में व्यथा उभरती होगी?
टूटे अरमानों की छाया, या मूक बनी सिसकती होगी?
क्या वहाँ भी हृदय धड़कते होंगे, प्रेम-कथा पलती होगी?
या बस गुम सन्नाटे में वह, तन्हा आहें भरती होगी।
कल्पना करो कैसी होगी, इस दर्पण के पार की दुनिया,
क्या मेरे जीवन से सुंदर, हो सकती उस पार की दुनिया।
हां नवजीवन की चाह तो है, एक नूतन सा प्रवाह तो है
दूर कहीं जीवन–द्वंद्वों से, शांति की कोई राह तो है।।
जहां मानवता को वास मिले, न कोई दुखी उदास मिले।
स्नेह पूरित हो निर्मल मन, माया कलुषित न प्यास मिले।।
क्या वहां कोई है अतीत मेरा, या भविष्य की कोई अभिलाषा
रिक्त कुएं में प्रतिध्वनि सी, मानो गूंज उठा प्यासा।।
इस दर्पण के पार की दुनिया में, क्या ख्वाब मेरे छलकाते होंगे,
या मेरे कुछ राज अनकहे , मन ही मन बहलाते होंगे।।
क्या सच में है वह दुनिया, या बस एक विचार,
या मेरा ही मन है गहरा, जिसका यह विस्तार ।।