मैं नहीं जानता जीवन की, एकल अधीरता कैसी है....
मैं नहीं जानता जीवन की, एकल अधीरता कैसी है,
नहीं जानता स्त्री–पुरुष में, यह स्थिरता कैसी है।
मैंने संग तेरे चलकर, मन के वह द्वंद नही देखे,
न रोया रातों में तुझ संग, विरह पृष्ठ नहीं खोले।
न समझ सका वह अंतर–युद्ध, न जीवन की वह चंचलता
एक अधूरी कड़ी बना मैं, पूर्ण मिलन की उत्सुकता!
मैंने पल–पल कुछ भाव दिए, मन में मन के ठहराव लिए
विकल हुए इस जीवन को, फिर समय समय प्रवाह दिए।
किंतु विरह की ज्वाला जो, इस करुण हृदय में हुई प्रखर
मैं घुट–घुट कर चुप रहता हूं, एक शिला सा मौन मुखर
नहीं जानता सही गलत को, भाव पूजता रहा सदा।
मधुर मिलन था संग जो बीता, तेरी मेरी प्रेम व्यथा।
ज्यों गुंजन करते भ्रमर, फूलों से मधुरस भरने को
चंचल चितवन की वह भाषा, विकल मेरा चित हरने को
नहीं चाहिए स्त्रीत्व तुम्हारा, ना देह-रूप का अभिलाषी
साथ रहूं कुछ साथ चलूं, है सफर मेरा मैं प्रवासी
किन्तु आज हृदय में यह, कैसा कोलाहल होता
स्मृतियों के उन्मादों में क्यों सावन उमड़–उमड़ रोता
जब जब सहलाए वो कपोल, कुछ अनकही बातें कहती थीं।
वे पल जो बीते थे संग में, अपनी जीवन धारा बहती थीं।
किन्तु टीस बनीं वह यादें, इस करुण हृदय को छलती हैं।
वही स्पर्श जो मरहम सा था, आज विरह में जलती हैं।
नहीं पूछता कब क्या होगा, आख़िर मेरी राह कहाँ?
बस चलता हूँ आस लिए इक, मन पूछे मेरी चाह कहाँ?'
यह कैसा अद्भुत नाता है, न बंधन है, न परिभाषा।
बस भावों का सच्चा सागर, अर यादों की अभिलाषा।
उन रातों की लंबी कहानियाँ, तारों की शीतल छाया में।
जब–जब समय ठहर जाता था, फिर नयनों की माया में ।
वो स्पर्श, वो हँसी, वो वादें, जीवन का था मधुर प्रभात।
अब बस उनकी पीड़ा बाकी, या विषाद भरी ये काली रात।
कहाँ किसी को समझा पाया, यह रिश्ता जो मौन मुखर।
न पाने की कोई लालसा, न खोने का कोई डर।
बस जीना है इस पल को, जो भाव मिला, वह काफी है।
यह जीवन की अनमोल धरोहर, यह यात्रा ही अब बाकी है।
हर मोड़ पे तेरा अक्स दिखे, जैसे तू संग ही चलता है।
इस एकाकीपन के सफर में, यह दिल बस तुझको जपता है।
तुम दूर हो, पर पास हो फिर भी, इन आँखों की नमी में तुम हो।
हर आह में, हर करवट में तुम, मेरी हर साँस–साँस में तुम हो।
वो पल अब बस यादों में हैं, जिनमें जीवन सार बसा था।
जाने कहाँ खो गई वो दुनिया, जिसमें तेरा प्यार हँसा था।
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